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GHAZAL

तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है

तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है

मिरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है

सहर होने को है बेदार शबनम होती जाती है

ख़ुशी मंजुमला-ओ-अस्बाब-ए-मातम होती जाती है

क़यामत क्या ये ऐ हुस्न-ए-दो-आलम होती जाती है

कि महफ़िल तो वही है दिल-कशी कम होती जाती है

वही मय-ख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा

मगर आवाज़-ए-नोशा-नोश मद्धम होती जाती है

वही हैं शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है

वही है शम्अ लेकिन रौशनी कम होती जाती है

वही शोरिश है लेकिन जैसे मौज-ए-तह-नशीं कोई

वही दिल है मगर आवाज़ मद्धम होती जाती है

वही है ज़िंदगी लेकिन 'जिगर' ये हाल है अपना

कि जैसे ज़िंदगी से ज़िंदगी कम होती जाती है

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तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है — Jigar Moradabadi • ShayariPage