दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उन को सुनाई न गई

दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उन को सुनाई न गई

बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई

सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन

इक तिरी याद थी ऐसी जो भुलाई न गई

इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का क़ाबू

उस ने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई

पड़ गया हुस्न-ए-रुख़-ए-यार का परतव जिस पर

ख़ाक में मिल के भी इस दिल की सफ़ाई न गई

क्या उठाएगी सबा ख़ाक मिरी उस दर से

ये क़यामत तो ख़ुद उन से भी उठाई न गई