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GHAZAL

नहीं ऐसा भी कि यकसर नहीं रहने वाला

नहीं ऐसा भी कि यकसर नहीं रहने वाला

दिल में ये शोर बराबर नहीं रहने वाला

जिस तरह ख़ामुशी लफ़्ज़ों में ढली जाती है

इस में तासीर का उंसुर नहीं रहने वाला

अब ये किस शक्ल में ज़ाहिर हो, ख़ुदा ही जाने

रंज ऐसा है कि अंदर नहीं रहने वाला

मैं उसे छोड़ना चाहूँ भी तो कैसे छोड़ूँ?

वो किसी और का हो कर नहीं रहने वाला

ग़ौर से देख उन आँखों में नज़र आता है

वो समुंदर जो समुंदर नहीं रहने वाला

जुर्म वो करने का सोचा है कि बस अब की बार

कोई इल्ज़ाम मिरे सर नहीं रहने वाला

मैं ने हालाँकि बहुत वक़्त गुज़ारा है यहाँ

अब मैं इस शहर में पल भर नहीं रहने वाला

मस्लहत लफ़्ज़ पे दो हर्फ़ न भेजूँ? 'जव्वाद'

जब मिरे साथ मुक़द्दर नहीं रहने वाला

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नहीं ऐसा भी कि यकसर नहीं रहने वाला — Jawwad Sheikh • ShayariPage