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GHAZAL

दरगुज़र जितना किया है वही काफ़ी है मुझे

दरगुज़र जितना किया है वही काफ़ी है मुझे

अब तुझे क़त्ल भी कर दूँ तो मुआफ़ी है मुझे

मसअला ऐसे कोई हल तो न होगा शायद

शेर कहना ही मिरे ग़म की तलाफ़ी है मुझे

दफ़अतन इक नए एहसास ने चौंका सा दिया

मैं तो समझा था कि हर साँस इज़ाफ़ी है मुझे

मैं न कहता था दवाएँ नहीं काम आएँगी

जानता था तिरी आवाज़ ही शाफ़ी है मुझे

इस से अंदाज़ा लगाओ कि मैं किस हाल में हूँ

ग़ैर का ध्यान भी अब वा'दा-ख़िलाफ़ी है मुझे

वो कहीं सामने आ जाए तो क्या हो 'जव्वाद'

याद ही उस की अगर सीना-शिगाफ़ी है मुझे

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दरगुज़र जितना किया है वही काफ़ी है मुझे — Jawwad Sheikh • ShayariPage