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NAZM

किसी का हुक्म है सारी हवाएँ

किसी का हुक्म है सारी हवाएँ

हमेशा चलने से पहले बताएँ

कि उन की सम्त क्या है

किधर जा रही हैं

हवाओं को बताना ये भी होगा

चलेंगी अब तो क्या रफ़्तार होगी

हवाओं को ये इजाज़त नहीं है

कि आँधी की इजाज़त अब नहीं है

हमारी रेत की सब ये फ़सीलें

ये काग़ज़ के महल जो बन रहे हैं

हिफ़ाज़त उन की करना है ज़रूरी

और आँधी है पुरानी इन की दुश्मन

ये सभी जनते हैं

किसी का हुक्म है दरिया की लहरें

ज़रा ये सर-कशी कम कर लें अपनी हद में ठहरें

उभरना फिर बिखरना और बिखर कर फिर उभरना

ग़लत है ये उन का हंगामा करना

ये सब है सिर्फ़ वहशत की अलामत

बग़ावत की अलामत

बग़ावत तो नहीं बर्दाश्त होगी

ये वहशत तो नहीं बर्दाश्त होगी

अगर लहरों को है दरिया में रहना

तो उन को होगा अब चुप-चाप बहना

किसी का हुक्म है

इस गुलिस्ताँ में बस इक रंग के ही फूल होंगे

कुछ अफ़सर होंगे जो ये तय करेंगे

गुलिस्ताँ किस तरह बनना है कल का

यक़ीनन फूल तो यक-रंगीं होंगे

मगर ये रंग होगा कितना गहरा कितना हल्का

ये अफ़सर तय करेंगे

किसी को ये कोई कैसे बताए

गुलिस्ताँ में कहीं भी फूल यक-रंगीं नहीं होते

कभी हो ही नहीं सकते

कि हर इक रंग में छुप कर बहुत से रंग रहते हैं

जिन्होंने बाग़-ए-यक-रंगीं बनाना चाहे थे

उन को ज़रा देखो

कि जब इक रंग में सौ रंग ज़ाहिर हो गए हैं तो

कितने परेशाँ हैं कितने तंग रहते हैं

किसी को ये कोई कैसे बताए

हवाएँ और लहरें कब किसी का हुक्म सुनती हैं

हवाएँ हाकिमों की मुट्ठियों में हथकड़ी में

क़ैद-ख़ानों में नहीं रुकतीं

ये लहरें रोकी जाती हैं

तो दरिया कितना भी हो पुर-सुकूँ बेताब होता है

और इस बेताबी का अगला क़दम सैलाब होता है

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किसी का हुक्म है सारी हवाएँ — Javed Akhtar • ShayariPage