यक़ीन का अगर कोई भी सिलसिला नहीं रहा

यक़ीन का अगर कोई भी सिलसिला नहीं रहा

तो शुक्र कीजिए कि अब कोई गिला नहीं रहा


न हिज्र है न वस्ल है अब इस को कोई क्या कहे

कि फूल शाख़ पर तो है मगर खिला नहीं रहा


ख़ज़ाना तुम न पाए तो ग़रीब जैसे हो गए

पलक पे अब कोई भी मोती झिलमिला नहीं रहा


बदल गई है ज़िंदगी बदल गए हैं लोग भी

ख़ुलूस का जो था कभी वो अब सिला नहीं रहा


जो दुश्मनी बख़ील से हुई तो इतनी ख़ैर है

कि ज़हर उस के पास है मगर पिला नहीं रहा