दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं

दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं

ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं

रास्ता रोके खड़ी है यही उलझन कब से

कोई पूछे तो कहें क्या कि किधर जाते हैं

छत की कड़ियों से उतरते हैं मिरे ख़्वाब मगर

मेरी दीवारों से टकरा के बिखर जाते हैं

नर्म अल्फ़ाज़ भली बातें मोहज़्ज़ब लहजे

पहली बारिश ही में ये रंग उतर जाते हैं

उस दरीचे में भी अब कोई नहीं और हम भी

सर झुकाए हुए चुप-चाप गुज़र जाते हैं