"वो"

"वो"

वो किताब-ए-हुस्न वो इल्म ओ अदब की तालीबा

वो मोहज़्ज़ब वो मुअद्दब वो मुक़द्दस राहिबा

किस क़दर पैराया परवर और कितनी सादा-कार

किस क़दर संजीदा ओ ख़ामोश कितनी बा-वक़ार

गेसू-ए-पुर-ख़म सवाद-ए-दोश तक पहुँचे हुए

और कुछ बिखरे हुए उलझे हुए सिमटे हुए

रंग में उस के अज़ाब-ए-ख़ीरगी शामिल नहीं

कैफ़-ए-एहसासात की अफ़्सुर्दगी शामिल नहीं

वो मिरे आते ही उस की नुक्ता-परवर ख़ामुशी

जैसे कोई हूर बन जाए यकायक फ़लसफ़ी

मुझ पे क्या ख़ुद अपनी फ़ितरत पर भी वो खुलती नहीं

ऐसी पुर-असरार लड़की मैं ने देखी ही नहीं

दुख़तरान-ए-शहर की होती है जब महफ़िल कहीं

वो तआ'रुफ़ के लिए आगे कभी बढ़ती नहीं