"सज़ा"
"सज़ा"
हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम
हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं
तुम कौन हो यह ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम
मैं कौन हूँ मैं ख़ुद भी नहीं जानता हूँ मैं
तुम मुझको जान कर ही पड़ी हो अज़ाब में
और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं
तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उसका ख़ुदा नहीं
पस सर-बसर अजी़य्यत व आजा़र ही रहो
बेजा़र हो गई हो बहुत ज़िन्दगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो
तुम को यहां के साया व परतौ से क्या ग़र्ज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो
मैं इब्तिदा-ए-इश्क़ से बेमहर ही रहा
तुम इन्तिहा-ए-इश्क़ का मेयार ही रहो
तुम ख़ून थूकती हो यह सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो
मैंने यह कब कहा था मोहब्बत में है नजात
मैंने यह कब कहा था वफ़ादार ही रहो
अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मेरे लिए
बाज़ार-ए-इल्तिफ़ात में नादार ही रहो
जब मैं तुम्हें निशात-ए-मोहब्बत न दे सका
ग़म में कभी सुकून रफा़क़त न दे सका
जब मेरे सब चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं
फिर मुझको चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं
तन्हा कराहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं