"मगर ये ज़ख़्म ये मरहम"

"मगर ये ज़ख़्म ये मरहम"

तुम्हारे नाम तुम्हारे निशाँ से बे-सरोकार

तुम्हारी याद के मौसम गुज़रते जाते हैं

बस एक मन्ज़र-ए-बे-हिज्र-ओ-विसाल है जिस में

हम अपने आप ही कुछ रंग भरते जाते हैं

न वो नशात-ए-तसव्वुर कि लो तुम आ ही गए

न ज़ख़्म-ए-दिल की है सोज़िश कोई जो सहनी हो

न कोई वा'दा-ओ-पैमाँ की शाम है न सहर

न शौक़ की है कोई दास्ताँ जो कहनी हो

नहीं जो महमिल-ए-लैला-ए-आरज़ू सर-ए-राह

तो अब फ़ज़ा में फ़ज़ा के सिवा कुछ और नहीं

नहीं जो मौज-ए-सबा में कोई शमीम-ए-पयाम

तो अब सबा में सबा के सिवा कुछ और नहीं

उतार दे जो किनारे पे हम को कश्ती-ए-वहम

तो गिर्द-ओ-पेश को गिर्दाब ही समझते हैं

तुम्हारे रंग महकते हैं ख़्वाब में जब भी

तो ख़्वाब में भी उन्हें ख़्वाब ही समझते हैं

न कोई ज़ख़्म न मरहम कि ज़िंदगी अपनी

गुज़र रही है हर एहसास को गँवाने में

मगर ये ज़ख़्म ये मरहम भी कम नहीं शायद

कि हम हैं एक ज़मीं पर और इक ज़माने में