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NAZM

"हमेशा क़त्ल हो जाता हूँ मैं"

"हमेशा क़त्ल हो जाता हूँ मैं"

बिसात-ए-ज़िंदगी तो हर घड़ी बिछती है उठती है

यहाँ पर जितने ख़ाने जितने घर हैं

सारे

ख़ुशियाँ और ग़म इनआ'म करते हैं

यहाँ पर सारे मोहरे

अपनी अपनी चाल चलते हैं

कभी महसूर होते हैं कभी आगे निकलते हैं

यहाँ पर शह भी पड़ती है

यहाँ पर मात होती है

कभी इक चाल टलती है

कभी बाज़ी पलटती है

यहाँ पर सारे मोहरे अपनी अपनी चाल चलते हैं

मगर मैं वो पियादा हूँ

जो हर घर में

कभी इस शह से पहले और कभी उस मात से पहले

कभी इक बुर्द से पहले कभी आफ़ात से पहले

हमेशा क़त्ल हो जाता है

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"हमेशा क़त्ल हो जाता हूँ मैं" — Jaun Elia • ShayariPage