Shayari Page
GHAZAL

उस के पहलू से लग के चलते हैं

उस के पहलू से लग के चलते हैं

हम कहीं टालने से टलते हैं

बंद है मय-कदों के दरवाज़े

हम तो बस यूँही चल निकलते हैं

मैं उसी तरह तो बहलता हूँ

और सब जिस तरह बहलते हैं

वो है जान अब हर एक महफ़िल की

हम भी अब घर से कम निकलते हैं

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में

जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं

है उसे दूर का सफ़र दर-पेश

हम सँभाले नहीं सँभलते हैं

शाम फ़ुर्क़त की लहलहा उठी

वो हवा है कि ज़ख़्म भरते हैं

है अजब फ़ैसले का सहरा भी

चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं

हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद

देखने वाले हाथ मलते हैं

तुम बनो रंग तुम बनो ख़ुशबू

हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं

Comments

Loading comments…