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GHAZAL

शौक़ का रंग बुझ गया याद के ज़ख़्म भर गए

शौक़ का रंग बुझ गया याद के ज़ख़्म भर गए

क्या मेरी फ़स्ल हो चुकी क्या मेरे दिन गुज़र गए

रह-गुज़र-ए-ख़याल में दोश-ब-दोश थे जो लोग

वक़्त की गर्द-बाद में जाने कहाँ बिखर गए

शाम है कितनी बे-तपाक शहर है कितना सहम-नाक

हम-नफ़सो कहाँ हो तुम जाने ये सब किधर गए

पास-ए-हयात का ख़याल हम को बहुत बुरा लगा

पस ब-हुजूम-ए-मअरका जान के बे-सिपर गए

मैं तो सफ़ों के दरमियाँ कब से पड़ा हूँ नीम-जाँ

मेरे तमाम जाँ-निसार मेरे लिए तो मर गए

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