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GHAZAL

सर ही अब फोड़िए नदामत में

सर ही अब फोड़िए नदामत में

नींद आने लगी है फ़ुर्क़त में

हैं दलीलें तिरे ख़िलाफ़ मगर

सोचता हूँ तिरी हिमायत में

रूह ने इश्क़ का फ़रेब दिया

जिस्म को जिस्म की अदावत में

अब फ़क़त आदतों की वर्ज़िश है

रूह शामिल नहीं शिकायत में

इश्क़ को दरमियाँ न लाओ कि मैं

चीख़ता हूँ बदन की उसरत में

ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम

रूठते अब भी हैं मुरव्वत में

वो जो ता'मीर होने वाली थी

लग गई आग उस इमारत में

ज़िंदगी किस तरह बसर होगी

दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में

हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब

यही मुमकिन था इतनी उजलत में

फिर बनाया ख़ुदा ने आदम को

अपनी सूरत पे ऐसी सूरत में

और फिर आदमी ने ग़ौर किया

छिपकिली की लतीफ़ सनअ'त में

ऐ ख़ुदा जो कहीं नहीं मौजूद

क्या लिखा है हमारी क़िस्मत में

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