एक बौछार था वो शख्स,
एक बौछार था वो शख्स,
बिना बरसे किसी अब्र की सहमी सी नमी से
जो भिगो देता था
एक बोछार ही था वो,
जो कभी धूप की अफ़शां भर के
दूर तक, सुनते हुए चेहरों पे छिड़क देता था
नीम तारीक से हॉल में आंखें चमक उठती थीं
सर हिलाता था कभी झूम के टहनी की तरह,
लगता था झोंका हवा का था कोई छेड़ गया है
गुनगुनाता था तो खुलते हुए बादल की तरह
मुस्कराहट में कई तरबों की झनकार छुपी थी
गली क़ासिम से चली एक ग़ज़ल की झनकार था वो
एक आवाज़ की बौछार था वो