ज़िक्र होता है जहाँ भी मिरे अफ़्साने का

ज़िक्र होता है जहाँ भी मिरे अफ़्साने का

एक दरवाज़ा सा खुलता है कुतुब-ख़ाने का


एक सन्नाटा दबे-पाँव गया हो जैसे

दिल से इक ख़ौफ़ सा गुज़रा है बिछड़ जाने का


बुलबुला फिर से चला पानी में ग़ोते खाने

न समझने का उसे वक़्त न समझाने का


मैं ने अल्फ़ाज़ तो बीजों की तरह छाँट दिए

ऐसा मीठा तिरा अंदाज़ था फ़रमाने का


किस को रोके कोई रस्ते में कहाँ बात करे

न तो आने की ख़बर है न पता जाने का