ज़िक्र आए तो मिरे लब से दुआएँ निकलें

ज़िक्र आए तो मिरे लब से दुआएँ निकलें

शम्अ' जलती है तो लाज़िम है शुआएँ निकलें

वक़्त की ज़र्ब से कट जाते हैं सब के सीने

चाँद का छलका उतर जाए तो क़ाशें निकलें

दफ़्न हो जाएँ कि ज़रख़ेज़ ज़मीं लगती है

कल इसी मिट्टी से शायद मिरी शाख़ें निकलें

चंद उम्मीदें निचोड़ी थीं तो आहें टपकीं

दिल को पिघलाएँ तो हो सकता है साँसें निकलें

ग़ार के मुँह पे रखा रहने दो संग-ए-ख़ुर्शीद

ग़ार में हाथ न डालो कहीं रातें निकलें