Shayari Page
GHAZAL

वो ख़त के पुर्ज़े उड़ा रहा था

वो ख़त के पुर्ज़े उड़ा रहा था

हवाओं का रुख़ दिखा रहा था

बताऊँ कैसे वो बहता दरिया

जब आ रहा था तो जा रहा था

कुछ और भी हो गया नुमायाँ

मैं अपना लिक्खा मिटा रहा था

धुआँ धुआँ हो गई थीं आँखें

चराग़ को जब बुझा रहा था

मुंडेर से झुक के चाँद कल भी

पड़ोसियों को जगा रहा था

उसी का ईमाँ बदल गया है

कभी जो मेरा ख़ुदा रहा था

वो एक दिन एक अजनबी को

मिरी कहानी सुना रहा था

वो उम्र कम कर रहा था मेरी

मैं साल अपने बढ़ा रहा था

ख़ुदा की शायद रज़ा हो इस में

तुम्हारा जो फ़ैसला रहा था

Comments

Loading comments…
वो ख़त के पुर्ज़े उड़ा रहा था — Gulzar • ShayariPage