चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़

चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़

ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम

और कुछ देर सितम सह लें तड़प लें रो लें

अपने अज्दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम


जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरें हैं

फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं

अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं

ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में

हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं


लेकिन अब ज़ुल्म की मीआद के दिन थोड़े हैं

इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं


अरसा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में

हम को रहना है पे यूँही तो नहीं रहना है

अजनबी हाथों का बे-नाम गिराँ-बार सितम

आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है


ये तिरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द

अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार

चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द


दिल की बे-सूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार

चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़