मुझे मोजज़ों पे यक़ीं नहीं मगर आरज़ू है कि जब क़ज़ा

मुझे मोजज़ों पे यक़ीं नहीं मगर आरज़ू है कि जब क़ज़ा

मुझे बज़्म-ए-दहर से ले चले

तो फिर एक बार ये इज़्न दे

कि लहद से लौट के आ सकूँ

तिरे दर पे आ के सदा करूँ

तुझे ग़म-गुसार की हो तलब तो तिरे हुज़ूर में आ रहूँ

ये न हो तो सूए-ए-रह-ए-अदम मैं फिर एक बार रवाना हूँ