सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं

सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं

हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं


शम-ए-नज़र ख़याल के अंजुम जिगर के दाग़

जितने चराग़ हैं तिरी महफ़िल से आए हैं


उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगर

कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं


हर इक क़दम अजल था हर इक गाम ज़िंदगी

हम घूम फिर के कूचा-ए-क़ातिल से आए हैं


बाद-ए-ख़िज़ाँ का शुक्र करो 'फ़ैज़' जिस के हाथ

नामे किसी बहार-ए-शिमाइल से आए हैं