रह-ए-ख़िज़ाँ में तलाश-ए-बहार करते रहे

रह-ए-ख़िज़ाँ में तलाश-ए-बहार करते रहे

शब-ए-सियह से तलब हुस्न-ए-यार करते रहे


ख़याल-ए-यार कभी ज़िक्र-ए-यार करते रहे

इसी मताअ' पे हम रोज़गार करते रहे


नहीं शिकायत-ए-हिज्राँ कि इस वसीले से

हम उन से रिश्ता-ए-दिल उस्तुवार करते रहे


वो दिन कि कोई भी जब वज्ह-ए-इन्तिज़ार न थी

हम उन में तेरा सिवा इंतिज़ार करते रहे


हम अपने राज़ पे नाज़ाँ थे शर्मसार न थे

हर एक से सुख़न-ए-राज़-दार करते रहे


ज़िया-ए-बज़्म-ए-जहाँ बार बार मांद हुई

हदीस-ए-शोला-रुख़ाँ बार बार करते रहे


उन्हीं के फ़ैज़ से बाज़ार-ए-अक़्ल रौशन है

जो गाह गाह जुनूँ इख़्तियार करते रहे