न अब रक़ीब न नासेह न ग़म-गुसार कोई

न अब रक़ीब न नासेह न ग़म-गुसार कोई

तुम आश्ना थे तो थीं आश्नाइयाँ क्या क्या


जुदा थे हम तो मयस्सर थीं क़ुर्बतें कितनी

बहम हुए तो पड़ी हैं जुदाइयाँ क्या क्या


पहुँच के दर पे तिरे कितने मो'तबर ठहरे

अगरचे रह में हुईं जग-हँसाइयाँ क्या क्या


हम ऐसे सादा-दिलों की नियाज़-मंदी से

बुतों ने की हैं जहाँ में ख़ुदाइयाँ क्या क्या


सितम पे ख़ुश कभी लुत्फ़-ओ-करम से रंजीदा

सिखाईं तुम ने हमें कज-अदाइयाँ क्या क्या