हमीं से अपनी नवा हम-कलाम होती रही

हमीं से अपनी नवा हम-कलाम होती रही

ये तेग़ अपने लहू में नियाम होती रही


मुक़ाबिल-ए-सफ़-ए-आदा जिसे किया आग़ाज़

वो जंग अपने ही दिल में तमाम होती रही


कोई मसीहा न ईफ़ा-ए-अहद को पहुँचा

बहुत तलाश पस-ए-क़त्ल-ए-आम होती रही


ये बरहमन का करम वो अता-ए-शैख़-ए-हरम

कभी हयात कभी मय हराम होती रही


जो कुछ भी बन न पड़ा 'फ़ैज़' लुट के यारों से

तो रहज़नों से दुआ-ओ-सलाम होती रही