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GHAZAL

गो सब को बहम साग़र ओ बादा तो नहीं था

गो सब को बहम साग़र ओ बादा तो नहीं था

ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था

गलियों में फिरा करते थे दो चार दिवाने

हर शख़्स का सद चाक लबादा तो नहीं था

मंज़िल को न पहचाने रह-ए-इश्क़ का राही

नादाँ ही सही ऐसा भी सादा तो नहीं था

थक कर यूँही पल भर के लिए आँख लगी थी

सो कर ही न उट्ठें ये इरादा तो नहीं था

वाइ'ज़ से रह-ओ-रस्म रही रिंद से सोहबत

फ़र्क़ इन में कोई इतना ज़ियादा तो नहीं था

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गो सब को बहम साग़र ओ बादा तो नहीं था — Faiz Ahmad Faiz • ShayariPage