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GHAZAL

धूप के शहर में हुए साए

धूप के शहर में हुए साए

शुक्र किसका करूँ कि आप आए

अब तो जाकर भटकना सीखा है

अब कोई रास्ता न दिखलाए

इक ज़माने की ख़ाक छानी है

तेरे दर से कभी न उठ पाए

मुंजमित ख़्वाब है न ताबीरें

कौन सी रह पे कोई जम जाए

एक बे-नक्श नक्श पाया है

जाने कितने नकूश ठुकराए

जिसको फ़र्त-ए-जुनूँ का ख़तरा हो

उसकी बातों से जी न बहलाए

जो कटे थे तुझे भुलाने में

हमको वो दिन हमेशा याद आए

अपनी तशरीह क्या करें 'आमिर'

कौन समझे हुओं को समझाए

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