धूप के शहर में हुए साए

धूप के शहर में हुए साए

शुक्र किसका करूँ कि आप आए


अब तो जाकर भटकना सीखा है

अब कोई रास्ता न दिखलाए


इक ज़माने की ख़ाक छानी है

तेरे दर से कभी न उठ पाए


मुंजमित ख़्वाब है न ताबीरें

कौन सी रह पे कोई जम जाए


एक बे-नक्श नक्श पाया है

जाने कितने नकूश ठुकराए


जिसको फ़र्त-ए-जुनूँ का ख़तरा हो

उसकी बातों से जी न बहलाए


जो कटे थे तुझे भुलाने में

हमको वो दिन हमेशा याद आए


अपनी तशरीह क्या करें 'आमिर'

कौन समझे हुओं को समझाए