हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही

हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही

क्या चाँद तारे क्या मुर्ग़ ओ माही


तू मर्द-ए-मैदाँ तू मीर-ए-लश्कर

नूरी हुज़ूरी तेरे सिपाही


कुछ क़द्र अपनी तू ने न जानी

ये बे-सवादी ये कम-निगाही


दुनिया-ए-दूँ की कब तक ग़ुलामी

या राहेबी कर या पादशाही


पीर-ए-हरम को देखा है मैं ने

किरदार-ए-बे-सोज़ गुफ़्तार वाही