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GHAZAL

नजरअंदाज हो जाने का ज़हर अपनी नसों में भर रहा है कौन जाने

नजरअंदाज हो जाने का ज़हर अपनी नसों में भर रहा है कौन जाने

बहोत सर-सब्ज़ ग़ज़लों नज़्मों वाला अपने अंदर मर रहा है कौन जाने

अकेले शख़्स को अपने करीबी मौसमों में किस तरह के ज़ख्म आए

वो आख़िर किसलिए मां-बाप की कब्रों पे जाते डर रहा है कौन जाने

ये जिसके फे़ज़ से अपने पराएं झोलियां भरते हुए थकते नहीं है

ये चश्मा तेरे आने से बहोत पहले तलक पत्थर रहा है कौन जाने

जो पिछले तीस बरसो से मोहब्बत, शायरी और याद से रूठे हुए थे

तेरा शायर वो ही बच्चे वो ही बूढ़े इकट्ठे कर रहा है कौन जाने

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