न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते

न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते

सदफ़ में रहते ये मोती तो बे-बहा होते


मुझ ऐसे रिंद से रखते ज़रूर ही उल्फ़त

जनाब-ए-शैख़ अगर आशिक़-ए-ख़ुदा होते


गुनाहगारों ने देखा जमाल-ए-रहमत को

कहाँ नसीब ये होता जो बे-ख़ता होते


जनाब-ए-हज़रत-ए-नासेह का वाह क्या कहना

जो एक बात न होती तो औलिया होते


मज़ाक़-ए-इश्क़ नहीं शेख़ में ये है अफ़्सोस

ये चाशनी भी जो होती तो क्या से क्या होते


महल्ल-ए-शुक्र हैं 'अकबर' ये दरफ़शाँ नज़्में

हर इक ज़बाँ को ये मोती नहीं अता होते