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GHAZAL

क़ुर्बत भी नहीं दिल से उतर भी नहीं जाता

क़ुर्बत भी नहीं दिल से उतर भी नहीं जाता

वो शख़्स कोई फ़ैसला कर भी नहीं जाता

आँखें हैं कि ख़ाली नहीं रहती हैं लहू से

और ज़ख़्म-ए-जुदाई है कि भर भी नहीं जाता

वो राहत-ए-जाँ है मगर इस दर-बदरी में

ऐसा है कि अब ध्यान उधर भी नहीं जाता

हम दोहरी अज़िय्यत के गिरफ़्तार मुसाफ़िर

पाँव भी हैं शल शौक़-ए-सफ़र भी नहीं जाता

दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है

और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता

पागल हुए जाते हो 'फ़राज़' उस से मिले क्या

इतनी सी ख़ुशी से कोई मर भी नहीं जाता

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क़ुर्बत भी नहीं दिल से उतर भी नहीं जाता — Ahmad Faraz • ShayariPage