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GHAZAL

ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे

ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे

तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे

अपने ही साए से हर गाम लरज़ जाता हूँ

रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे

कितने नादाँ हैं तिरे भूलने वाले कि तुझे

याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे

तेरे माथे की शिकन पहले भी देखी थी मगर

ये गिरह अब के मिरे दिल में पड़ी हो जैसे

मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं

अपने ही पाँव में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे

आज दिल खोल के रोए हैं तो यूँ ख़ुश हैं 'फ़राज़'

चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे

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