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GHAZAL

हिज्र में ख़ुद को तसल्ली दी, कहा कुछ भी नहीं

हिज्र में ख़ुद को तसल्ली दी, कहा कुछ भी नहीं

दिल मगर हँसने लगा, आया बड़ा कुछ भी नहीं

हम अगर सब्र में रहते हैं तो क्या कुछ भी नहीं

जाने वालो! कभी आ देखो, बचा कुछ भी नहीं

बे-दिली यूँ ही कि रब कोई मसीहा भेजे

हम मसीहा से भी कह देंगे, ओ जा! कुछ भी नहीं

देखे बिन इश्क़ हुआ, देखे बिना दूर हुये

इतना कुछ हो भी गया और हुआ कुछ भी नहीं

सस्ते आबिद न बनें, लत को इबादत न कहें

आशिक़ी लज़्ज़त-ओ-ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं

मैं तेरे बाद मुसल्ली पे बहुत रोता रहा

और कहा, यार ख़ुदा! ख़ैर भला कुछ भी नहीं

इश्क़ मरदाना तबियत नहीं रखता 'अफ़कार'!

वरना ये हुस्न-ओ-जमाल और अदा कुछ भी नहीं

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हिज्र में ख़ुद को तसल्ली दी, कहा कुछ भी नहीं — Afkar Alvi • ShayariPage