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NAZM

"महबूबा के नाम"

"महबूबा के नाम"

तू अपनी चिट्ठियों में मीर के अशआर लिखती है

मोहब्बत के बिना है ज़िंदगी बेकार लिखती है

तेरे ख़त तो इबारत हैं वफ़ादारी की क़समों से

जिन्हें मैं पढ़ते डरता हूँ वही हर बार लिखती है

तू पैरोकार लैला की है शीरीं की पुजारन है

मगर तू जिसपे बैठी है वो सोने का सिंहासन है

तेरी पलकों के मस्कारे तेरे होंठों की ये लाली

ये तेरे रेशमी कपड़े ये तेरे कान की बाली

गले का ये चमकता हार हाथों के तेरे कंगन

ये सब के सब है मेरे दिल मेरे एहसास के दुश्मन

कि इनके सामने कुछ भी नहीं है प्यार की क़ीमत

वफ़ा का मोल क्या क्या है ऐतबार की क़ीमत

शिकस्ता कश्तियों टूटी हुई पतवार की क़ीमत

है मेरी जीत से बढ़कर तो तेरी हार की क़ीमत

हक़ीक़त ख़ून के आँसू तुझे रुलवाएगी जानाँ

तू अपने फ़ैसले पर बाद में पछताएगी जानाँ

मेरे काँधे पे छोटे भाइयों की ज़िम्मेदारी है

मेरे माँ बाप बूढ़े है बहन भी तो कुँवारी है

बरहना मौसमों के वार को तू सह न पाएगी

हवेली छोड़ कर तू झोपड़ी में रह न पाएगी

अमीरी तेरी मेरी मुफ़्लिसी को छल नहीं सकती

तू नंगे पाँव तो कालीन पर चल नहीं सकती

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"महबूबा के नाम" — Abrar Kashif • ShayariPage